Fiction

Play of Puppets

Translated by: 
John Vater

Scroll down or click here for the full text of the original Hindi version of this story: 

Even when the stand was kicked out from under it, the marionette remained in place – with its hands and feet thrown up in mid-air. At the sight of this miracle, you’d expect that the onlookers would have jumped back in amazement. But aside from a few children and childlike adults, the crowd showed only polite appreciation and continued on their way. It must have been utterly devastating to the boy running the puppet show. For when people don’t even take a passing interest in the greatest of miracles, what is the poor miracle maker to do? What’s more, though they’d stopped on the road to watch in the full knowledge that every show carries with it some special trick, they couldn’t bear to be fooled by such a young, untested child. To buy a puppet from him, or to reward his circus, would have meant acknowledging his artistry, whereas it was clear to all of the adults present that it’d be years before he was capable of pulling the wool over their eyes. 

I stood quietly apart from that crowd, trying to read the emotions on the boy’s face. I don’t know why, but even more than the show, it was the beauty of his puppets that attracted me. There isn’t anything special about a circus: I’d seen this kind of show before, in which a puppet master makes a marionette, or a joker, flip in the air with nothing to prop it up. It’s mostly a trick of the eyes; if anyone wanted to figure out how the technique really worked, the answer probably wouldn’t be hard to find. That being said, I hadn’t exactly figured it out either. But it was clear that the secret lay hidden in that black cloth, which had been converted into a screen, and against which black strings could occasionally be seen moving. If anyone leapt forward to snatch up those strings, the jig would be up, and the boy would be shamed. Everybody’s relationship – the boy’s, the puppet’s, the viewers’ – would flip in that moment of unveiling. But it would have been an unnecessary cruelty – more so than the game, it was the boy’s efforts that deserved kindness. The crowd’s vulgarity filled me with hatred – but what could I do? Inconsideration is, at worst, ranked amongst those crimes of ill-breeding, against which no direct action can be taken. If it were up to me, I’d have handed down a punishment to them equal to the suffering they’d caused that ignorant child. Involuntarily, it struck me that I stood accused before the boy as a proxy for the crowd, and that, somehow or other, I needed to find a way to make up for their baseless cruelty. 

 

 

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गुड़ियों का खेल

 

 

आधार हटा लियेजाने पर भी वह गुड़िया गिरी नहीं–लगा कि हवा में टिकी हुई हाथ-पैर फ़ेंक रही है। इस कमाल पर दर्शकों को आश्चर्य से दंग रह जाना चाहिए था, पर दो-एक बच्चों को और बच्चेनुमा बुज़ुर्गों को छोड़कर, बाकी लोगों ने इस कमाल पर ऊपरी सराहना दिखाकर अपना रास्ता पकड़ा। गुड़िया का सरकस दिखानेवाले लड़के को इससे शायद हार्दिक कष्ट हुआ, किन्तु लोग यदि बड़े-से-बड़े कमाल में दिलचस्पी नहीं ही लेना चाहें, तो कमाल दिखानेवाला बेचारा आख़िरकर भी क्या सकता है। दूसरे, यह जानते हुए भी कि वे तमाशा देखने रुके हैं और हर तमाशे की कहीं-न-कहीं अपनी चालाकी होती है, लोग एक कच्ची उम्रवाले लड़के की चालाकी काशिकार होना सहन नहीं कर सकते थे। उस लड़के के पास रखे गुड़ियों के बंडल से गुड़िया खरीदना, या उस तमाशे पर इनाम देना, यह स्वीकार करना होता कि लड़का हुनर रखता है, जबकि किसी भी बुज़ुर्गके सामने स्पष्ट था कि उस लड़के की उम्र अभी इतनी नहीं थी कि वह होशियार लोगों के स्तर का मान लिया जाए।

            मैं चुपचाप उस सारीभीड़ से अलग खड़ा लड़के के चेहरे का भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था। न जाने क्यों मुझे उस गुड़िया के सरकस से अधिक गुड़िया की सुन्दरता आकृष्ट कर रही थी। सरकस में कोई ख़ास बात न थी। इस तरह का तमाशा पहले भी देख चुका हूँ, जिसमें एक गुड़िया, या जोकर, बिना आधार के हवा में कलाबाज़ी खाते हैं। उसमें अधिकतर नज़र का धोखा रहता है। यदि कोई सचमुच जानना ही चाहे, तो पता लगा लेना ऐसा कठिन नहीं। इस लड़के के तमाशे को पूरी तरह तो अभी नहीं समझ सका था, लेकिन इतना निश्चित हो गया था कि असली राज़ उस काले कपड़े में छिपा है जिसकी पृष्ठभूमि बनाई गई थी और जिसके वावजूद कभी-कभी काले धागे हिलते हुए दीख जाते थे। लड़के को बिलकुल शर्मिन्दा किया जा सकता था, यदि कोई बढ़कर उन धागों को पकड़ लेता…सारे खेल का भंडाफोड़हो जाता। लड़का, गुड़िया, दर्शक – सबका सम्बन्ध आमूल बदल जाता उस परदाफ़ाश के अटपटे क्षण में। पर ऐसा करना शायद उस मासूम लड़के के प्रति अनावश्यक निष्ठुरता होती, जबकि उसके खेल से अधिक उसकी कोशिश के प्रति उदारता दिखाने की ज़रूरत थी। मुझे लोगों के रूखे व्यवहार से घृणा हुई, पर किया भी क्या जा सकता था ! रुखाई ज़्यादा-से-ज़्यादा अभद्रता की कोटि का अपराध है, जिसके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती, वरना उन लोगों को उतनी सज़ा तो मिलनी ही चाहिए, जितना कष्ट उन्होंने उस नादान लड़के को अपनी रुखाई से दिया था। अनायास ही मुझे लगा कि मैं उन सब लोगों की ओर से उस लड़के के सामने अपराधी हूँ…और मुझे किसी-न-किसी रूप में उस अकारण निष्ठुरता का प्रतिकार करना चाहिए।

 

 

एक बिलकुलफूहड़-सा सुझाव मन में आया: उस लड़के की सब गुड़ियाँ खरीद लूँ। दूसरे ही क्षण – क्या करूँगा इतनी सारी गुड़ियाँ लेकर? इससे अच्छा तो यह होगा कि उस लड़के को कुछ रुपए दे दूँ और गुड़ियाँ उसी के पास रहने दूँ: शान से कह सकता हूँ कि मुझे यह सरकस पसन्द आया, यह रहा तुम्हारा इनाम। अगले साल फिरआना और इससे बेहतर सरकस दिखाने की कोशिश करना। उफ़, हद है दम्भ की! मैं कौन होता हूँ इसे इनाम देनेवाला? यह भी कोई पुराना बादशाही ज़माना है कि खुश हुए तो एक दिन को सल्तनत बख़्श दी, नाराज हुए तो सिर उतरवा लिया। इस लड़के को यह एहसास क्यों होने दिया जाए कि वह उन्हें खुश करने के लिए तमाशा दिखाए जो इनाम दे सकते हैं…नहीं, नहीं, यह इनामवाली बात ग़लत है – इससे तो अच्छा इसकी सारी गुड़ियाँ खरीद लूँ, चाहे वे घर में पड़ी-पड़ी सड़ जाएँ, चाहे कल से इस लड़के की जगह मुझे गुड़ियों की दुकान लगाकर बैठना पडे़।…क्यों नहीं?

            लेकिन मैंने उससे एक बिलकुल अप्रत्याशित सवाल किया –“ये गुड़ियाँ बहुत सुन्दर हैं, ऐसे ही बिक सकती हैं, इनसे सरकस क्यों करवाते हो?”

            “सुन्दरता के ख़रीदार कम हैं, सरकस के ज़्यादा, और सुन्दरता के सरकस के सबसे ज़्यादा…इसलिए।”

“तुम बनाते हो इन गुड़ियों को?”

            “नहीं!... मेरी बहन। मैं सिर्फ़ इनका सरकस दिखाकर इन्हें बेचता हूँ।” फिरकुछ रुककर बोला, “खरीदेंगे आप एक गुड़िया?”

            “एक? मैं ये सब गुड़ियाँ ख़रीद सकता हूँ।”

            उसकी आँखें कुछ खुशी, कुछ अविश्वास सेफैलगईं और उसने बिलकुल नए सिरे से, बल्कि निराले दृष्टिकोण से मुझमें दिलचस्पी लेना शुरू किया। “सच?... ये सारी गुड़ियाँ?”

            मुझे इस उत्तर से थोड़ी निराशा हुई। उसे मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं थी, सिर्फ अपनी गुड़ियों में दिलचस्पी थी…वरना वह पूछता कि मैं इतनी गुड़ियाँ लेकर क्या करूँगा? अपनी निराशा को पूरी सफलता से छिपाते हुए मैंने उसी के हित को आगे बढ़ने दिया–

            “कितनी गुड़ियाँ हैं तुम्हारे पास?’’

            “यहाँ तो बीस ही हैं।’’

            “घर पर?’’

            “घर पर बहुत-सी हैं…जितनी आप चाहें। और बन भी सकती हैं, अगर आप एडवांस देकर आर्डर बुक कराएँ…।’’

            लड़का बातचीत से व्यापार-कुशल लगा। उसकीज़रूरतों ने ही उसे व्यापार-कुशल बनाया हो ऐसा नहीं, सम्भवतः वह स्वभाव से ही व्यापार-कुशल था और उसी के अनुसार उसने अपनी ज़रूरतें बनाईं, या दूसरों ने बनाईं।

 

 

घर पर उसकी बहन अकेली थी। उसके घर में लगी गुड़ियों की क़तार देखी तो दंग रह गया। बाज़ारवाली गुड़ियों की अपेक्षा उसकी निजी गुड़ियों की शोभा ही अलग थी। मुझे उसका छोटा-सा व्यस्त कारख़ाना बहुत प्यारा लगा। उस समय भी वह किसी गुड़िया का चेहरा बनाने में व्यस्त थी। मुझे उसने शायद कनखियों से देखा और अपने काम में लगी रही। उसके कन्धों पर पड़ा साड़ी का पल्ला सरककर आगे खिसक आया और उसके सुडौल वक्ष पर टिक गया। उसने मुझे फिर देखा और एक हाथ से पल्ले को कन्धों पर सरका दिया। मैंने अनुभव किया, साड़ी का रंग बेहद चटख़ है। यह भी कि वह लड़की सिर्फ़ अपनी गुड़ियों के प्रति ही पूर्णतःज़िम्मेदार हो सकती है, बाक़ी मामलों में या तो कम ज़िम्मेदारया ग़ैरज़िम्मेदार। मसलन, सेक्स के मामले में वह बिलकुल ग़ैरज़िम्मेदार हो सकती है। दुष्ट नहीं हो सकती। वह एक बुनियादी भोलापन थी, जिसके लिए शरीर की हर ज़रूरत जायज़ थी।

            मैंने अपनी मनपसन्द कुछ गुड़ियों का चुनाव कर लिया और उस लड़के को अपनी दुकान का पता बता दिया। लड़के को इसमें कोई आपत्ति न थी कि उसकी गुड़ियाँ कोई और अधिक दामों पर बेचे। उसे खुशी थी कि अब उसकी गुड़ियाँ घर बैठे बिका करेंगी।

 

 

मेरी दुकान के शो-केस में सजी अपनी गुड़ियों को उसने लापरवाही से देखा और कुछ क्षण के लिए अन्यमनस्क हो गई। मेरा अनुमान ग़लत था कि वह अपनी गुड़ियों के भविष्य के बारे में सोच रही है। वह मेरे बारे में सोच रही थी।

            आधा रास्ता तय कर लेने के बाद मानो गन्तव्य में अचानक कोई आकर्षण न रह जाए–न पहुँचने को जी चाहे, न लौटने को। वह इतमीनान से सड़क के किनारे एक पुलिया पर बैठ गई। उसके ठीक सामने गुलमोहर के भभकते गुच्छे। उन्हें देखती रही…या शायद उनके पार। मैं उसके सामने चुपचाप खड़ा रहूँ, चाहे उसकी बग़ल बैठ जाऊँ, उसके लिए कोई अन्तर नहीं पडे़गा।

            “क्या बात है? क्या मेरा घर देखना नहीं चाहतीं?”

            “नहीं।”

            “तो चलिए, आपको वापस आपके घर पहुँचा दूँ।”

            “क्या किसी-न-किसी के घर पहुँचना ज़रूरी है?”

            “जैसी आपकी इच्छा। तो मैं जाऊँ?”

            “ठहरिए! मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ।”

            “कहिए…। “वह चुप रही, फिर बोली, “क्या बजा है?” 

            “छह।”

            “सात बज जाने दीजिए, तब।” आश्चर्य हुआ। अजीब लड़की है। मज़ाक तो नहीं कर रही!

            “सात क्यों?”

            “तब तक अँधेरा हो जाएगा। हम एक-दूसरे को देख न सकेंगे, केवल सुन सकेंगे। शायद छू सकेंगे। और तब पहचानने में आसानी होगी। रोशनी में हम एक-दूसरे के सिर्फ़ उस चेहरे को देखेंगे, जो हम सबके सामने इस्तेमाल करते हैं।”

            “तब तक क्या करेंगे?”

            “यहीं बैठेंगे, किसी ऐसी चीज़ को देखते या सोचते हुए, जिसका ताल्लुक़ सुन्दरता से हो। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं कोरे आसमान को भी सोचती रह सकती हूँ। आप…।”

            “मैं आपकी बनाई गुड़ियों को…सोचने की कोशिश करूँगा।”

 

 

वह पुलिया पर थोड़ा खिसककर किनारे हो गई। मुझे पहली बार लगा कि वह स्पष्ट संकेत है कि मैं उसके निकट बैठूँ। उससे थोड़ा हटकर बैठ गया। वह हँसी और मेरे पास खिसक आई, और हम दोनों चुपचाप सात बजने की प्रतीक्षा करने लगे। वह लड़की असाधारण थी, जो एक क्षण में सात बजने मात्र को इतना महत्त्वपूर्ण बना सकती थी।

            वह अब मेरे बिलकुल पास सरक आई थी और मेरी बाँह से लिपटकर बैठ गई। सारपूर्ण स्पर्श…सरल और उदात्त। यह क्या है, जिसे अनुभव कर रहा हूँ, पर समझ नहीं रहा। निर्व्याख्या निकटता। 

            निष्कर्ष: ईश्वर न तो संज्ञा है, न सर्वनाम। वह विशेषण है, क्रिया विशेषण, या केवल क्रिया। यानी यह लड़की ईश्वर को नहीं, केवल ईश्वरता को समझ सकती है।

            “तुम्हें कुछ पूछना था?”

            “पूछ तो लिया।”

            “उत्तर से सन्तुष्ट हो?”

            “अभी नहीं।”

            उसके धैर्य ने मुझे विवश कर दिया। उसने कहीं विरोध नहीं किया और मेरी ढुलमुल इच्छा-शक्ति को अपने पक्ष में कर लिया। सारे तर्क के बावजूद मैं उसके इस सरल यक़ीन को नहीं समझ सका कि सवाल मेरे ही नहीं उसके अपने पर नियन्त्रण का भी है। वह पहले ही से जान जाती कि मैं कोई सशक्त तर्क प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। चुपचाप मुझे भोली निगाहों से देखती रहती और आधे तर्क पर ही मेरे ओठों को इस तरह चूम लेती कि आगे की बात बेकार हो जाती।

“ऐसे कब तक चलेगा?” मैंने चिन्तित होकर पूछा।

            “क्यों, इसमें क्या ख़राबी है?”

            “इसमें सब नही हैं, केवल हम हैं।”

            “सब ज़रूरी हैं?”

            “क्यों नहीं? सबकी दुनिया है जिसमें हम हैं। और हमें यह सुख ही नहीं जीना है, इस सुख के बाद भी जीना है।”

            “इस सुख के बाद जो है, वह भी ‘जीना‘ है?‘

            “वह क्या है फिर?”

            “वही सब है, और सबकी दुनिया है। इसके लिए मै गुड़ियाँ बनाऊँगी और तुम उन्हें बेचोगे। इससे ज़्यादा और कुछ उन्हें देने के लिए मैं तैयार नहीं…।’’

            “तुम्हें अपने पर बहुत भरोसा है। मुझे अपने पर इतना नहीं…।”

            “मैं जानती हूँ कि तुम अपने सारे तर्क के बाद जिस नेकी पर पहुंचोगे, मैं वहीं अपनी भावनाओं द्वारा पहुँचूँगी।”

            “यह तुम्हें कैसे मालूम कि मैं तर्क द्वारा किसी बद-नतीजे पर नहीं पहुँच सकता?”

            “वहीं तो मेरी भावना सही है, जो तुम्हारे तर्क नहीं, तुम्हारे स्वभाव को पहचानती है। तुम सही काम करके, ग़लत तर्क ढूँढ़ सकते हो पर सही तर्क के लिए ग़लत काम नहीं कर सकते।” 

            “सही क्या है, ग़लत क्या है – तर्क तो इसी का है। इसके फ़ैसले के बिना कर्म कैसा?”

            “कर्म इस फ़ैसले पर निर्भर नहीं, वैसे ही जैसे हमारा होना हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं। बहुत-कुछ पहले से ही हो रहा है जिसमें हम डाल दिए गए हैं। कर्म हमारी स्वेच्छा नहीं, विवशता भी है, और हम अपने ही नहीं, दूसरों के कर्मों से भी बँधते हैं। सारे फ़ैसले और नतीजे इस नियति के अन्दर हैं। उसके बाहर हम सब निर्दोष हैं।” वह रुकी, मानो किसी गहरे सोच में पड़ गई हो। फिर सहसा बोली, “मैं उन गुड़ियों की सीमा जानती हूँ, जिन्हें बनाती हूँ और जिनसे सरकस करवाती हूँ। जब वे हवा में झूलती और उलटती-पलटती हैं, तो अकसर निर्वसन हो जाती हैं, बल्कि उन्हें निर्वसन होना पड़ता है।” उसके चेहरे पर शरारत-भरी मुसकान आ गई थी। कहती रही, “मैं भी तुम्हारे समाज की ही तरह नग्नता को अश्लील मानती हूँ। इसीलिए इन गुड़ियों के शरीर में स्त्रीत्व के चिन्ह बनातीही नहीं। सरकस के लिए मजबूर, ये बेचारी बिना दिमाग़ अपनी नग्नता के लिए उचित तर्क कहाँ ख़ोज पातीं ? हूँ न मैं उस ईश्वर से ज़्यादा दयालु, जिसने हमें बिलकुल नंगा करके इस दुनिया में भेज दिया? या हो सकता है, उसे नग्नता से परहेज़न हो?’’

            “परहेज़ ज़रुर होगा, वरना वह हमें भी तुम्हारी गुड़ियों की तरह बिना दिमाग़ का बनाता। हमारे ऊपर भला यह ज़िम्मेदारीक्यों लादता कि हम अपनी नग्नता को छिपाने के लिए तर्क ढूँढ़ें? एक बात और, यदि सचमुच तुम्हारी गुड़ियाँ नग्न नहीं हो सकतीं, तो फिर इन्हें सुन्दर कपड़ों से क्यों सजाया है?’’

            “ताकि ये देखने में शरीफ़ लगें और कोई इस राज़ को जान न सके कि वे अन्दर से क्या हैं।”

            “जानती हो, तुम्हें लोग पागल भी कह सकते हैं?”

            “लोग बिना सोचे कुछ भी कह सकते हैं। सोचें तो सिर्फ़ उसे पागल कहेंगे, जिसने हमें बनाया।”

            उसकी बातें व्यावहारिक नहीं लगतीं, क्योंकि वे हमें दूसरों से बहुत दूर, एक-दूसरे के बहुत निकट लिए जा रही थीं। उसका ध्यानउस पुलिया पर नहीं था, जिस पर वह बैठी थी। लेकिन भविष्य में वह जगह शायद महत्त्वपूर्ण हो सकती थी। मेरे सुनने और उसके कहने के बीच एक गहरी खाई थी…नहीं, नहीं, शायद एक दरार-भर थी, जिसमें दुनिया-भर के कनखजूरे रेंग रहे थे। हमारे चारों ओर या हमारे आसपास कोई ऐसी चीज़नहीं थी, जिसे गहरी कहा जा सके। सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ वह पुलिया थी, जिस पर हम साथ बैठे थे।

 

 

आज वह बहुत खुश नज़र आ रही थी। मिलते ही चहककर बोली, “आज मैंने विवाह कर डाला, सवेरे।”

            “---!!!’’

            “तुम्हें इतना ताज्जुब क्यों?”

            “किसके साथ?”

            “है एक मूर्ख।”

            “क्यों?”

            “मैं माँ बननेवाली थी, मेरे बच्चे के लिए एक पिता की ज़रूरत थी।”

            “लेकिन वह कौन था?”

            नाराज़गी से बोली, “तुमसे मतलब?”

            “मैं?”

            “कोई हो। जब तुमसे पिता बनने को नहीं कहरही हूँ तो तुम्हें चिन्ता कैसी?”

            “मैंने पिता बनने से कब इनकार किया…यदि मेरा बच्चा है तो…।”

            “यही तो। हो सकता है तुम्हारा न हो। उसी का हो, जो पिता बनने जा रहा है, या उसका भी न हो, या…।”

            “हे ईश्वर! तुम मनुष्य हो…?”

            “ईश्वर मनुष्य नहीं है, और जो भी हो। मैं मनुष्य हूँ, और कुछ नहीं। न ईश्वर, न…।”

            “क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं था?”

            “विश्वास? तुम पर था, तुम्हारी परिस्थितियों पर नहीं।”

            “अन्याय मत करो। मैं तुमसे विवाह कर सकता था…हर दशा में…।

            “सच?”

            “सच!”

            “क्यों?”

            “क्योंकि मैं तुमसे प्यार करता हूँ।”

            “प्यार…बहुत बड़ा कारण तो नहीं। इससे बड़ी तो बहुत-सी साधारण बातें होती हैं, जिनकी वजह से प्यार नहीं हो पाता, या विवाह नहीं हो पाता…।”

            “मुझे दुख है कि तुम एक मामूली-सी बात को मानना नहीं चाह रही हो…।”

            “मामूली-सी बात है तो मान सकती हूँ, क्योंकि तब वह घटित भी हो सकती है। बड़ी बात से डरती हूँ। तो क्या तुम सचमुच मुझसे विवाह करने को तैयार हो?”

            “हाँ, लेकिन तुम तो…।”

            “मैंने अभी शादी नहीं की है।”

            “और…?”

            “न माँ बनने जा रही हूँ।”

            “तो यह सब झूठ था?”

            “झूठ नहीं, सच था, जो अभी घटित नहीं हुआ। इच्छा हुई कि कुछ क्षण एक घटना को किसी अत्यन्त मूर्खतापूर्ण परिणाम की ओर से उलटकर किसी सुन्दर कारण की दिशा से जिऊँ। इसमें तुम्हें नहीं, मैंने केवल अपने को धोखादिया है। तुम मुझे प्यार करते हो और मुझसे विवाह के लिए तैयार हो…इससे अधिक सुन्दर और क्या हो सकता है? क्या यह झूठ है?”

            “नहीं।”

            “घबराओ मत। मैं तुमसे विवाहनहीं करूँगी …।”

            “ठहरो। इतने सुन्दर कारण तक पहुँचकर उसे किसी भद्दे नतीजे पर मत पहुँचा दो…।”

            “नतीजा मेरे हाथ में नहीं, लेकिन उसकी व्याख्या मेरे ही हाथ में है। अगर गुड़ियाँ रच सकती हूँ, तो ख़ुशी भी।”

            “क्या तुम अपने जीवन में ख़ुश हो?”

            “ख़ुशी होती नहीं, वह बनाई जाती है। जब चाहती हूँ ज़िन्दगी के किसी भी कच्चे माल से एक गुड़िया-सी ख़ुशी रच लेती हूँ। जब उससे ऊब जाती हूँ तो उसे छोड़कर नया कुछ रचती हूँ। जब ख़ुशियों से ऊब जाती हूँ तो कुछ नहीं करती –एक लम्बी, बेवकूफ़ उदासी से अपने को घेरकर किसी बेमतलब चीज़ को एकदम शुरू से सोचने लगती हूँ।”

            “उससे क्या होता है?”

            “यह एहसास कि ख़ुशियों से भी बड़ी कोई चीज़ है, जो इस दुनिया में नहीं।”

            “ईश्वर?”

            “ईश्वर…ईश्वर…ईश्वर…तुम बार-बार इस महाविराम को उठाकर क्यों रख देते हो सामने? ईश्वर इसी दुनिया की चीज़ है।मैं कुछ और कह रही थी। इस दुनिया की अपेक्षा न होने की बात।’’

            “इतने बारीक स्तर पर ज़िन्दगी को नहीं जिया जा सकता।”

            “मेरे लिए अगर ज़िन्दगी के कोई मानी हैं, तो बारीक स्तर पर ही, वरना दो-एक क़हक़हों और आँसुओं के बाद समाप्त हो जाना चाहिए इसे…।’’

            “ज़िन्दगी की ज़रूरतें स्थूल हैं, सूक्ष्म नहीं।”

 

 

उसके घर के सामने चार-पाँच आदमियों की परेशान भीड़-सी इकट्ठा थी। ख़बर मिली कि उसका भाई किसी मोटर के नीचे आ गया था, अस्पताल में है।

            जिस समय हम लोग अस्पताल पहुँचे, उसे खून दिया जा रहा था। लड़के ने शायद बहन के कोमल स्पर्श को पहचानकर आँखें खोलीं। उसकी आँखें मानो बहन के चेहरे पर कुछ खोजती रहीं, फ़िर उसने आँखें बन्द कर लीं। वह उठकर बाहर बरामदे में मेरे पास आ गई।

            “तुम्हें उसके पास रहना चाहिए।”

            “वह बेहोश है।”

            “फिर भी…।”

            “तुम्हारे सन्तोष के लिए उसके सिरहाने बैठी रह सकती हूँ।”

            “क्यों…तुम्हें इसमें कोई सन्तोष नहीं होगा?”

            “मेरे सन्तोष की बात नहीं। सवाल है उसके सन्तोष का, जिसके सिरहाने बैठूँगी।”

            वह होश में नहीं आया। दूसरे दिन उसके घर पहुँचा, तो देखा कि वह अपने भाई के कमरे में बिलकुल निश्चेष्ट बैठी थी। मैं बिना कुछ कहे उसके पासचुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उसे मानो मेरे वहाँ होने का घ्यान आया। बोली, “यह जो कुछ हुआ, इसे तुम जीवन की स्थूल क्षति समझते हो या सूक्ष्म?”

            “देखने पर निर्भर करता है। बहुत नज़दीक से देखा जाए तो स्थूल, बहुत दूर से देखा जाए तो सूक्ष्म।”

“मैं उसे भूल नहीं पा रही हूँ। कोई स्थूल उपाय बताओ…।’’ कुछ रुककर वह मेरे बिलकुल समीप खिसक आई। मरे चेहरे पर हाथ फेरती हुई बोली, “तुम…तुम प्यार कर सकते हो? अभी…इस समय…यहीं…!”

            “उफ़! बीस्ट…!”

            “बीस्ट! मुझे भी स्थूल भयानक लगता है। जैसे बेवक़्त उसकी मौत, और बेवक़्त तुमसे प्यार। उससे भी अधिक भयानक है यह सम्भावना कि प्यार भी घटित हो सकता है, उसी मौत की तरह, बिना मेरे चाहे। मेरी नहीं, दूसरों की स्थूल ज़रूरतें मुझे मजबूर कर सकती हैं!”

 

 

आज कई दिनों बाद उसके घर गया। वह गुमसुम बैठी थी। दुकान में गुड़ियाँ समाप्त हो गई थीं। चाहता था कि वह फिर से अपने काम में दिलचस्पी ले, पर कुछ कह न सका। उसने ही कहा, “कल से काम शुरू करूँगी।”

            “आज से क्यों नहीं?”

            “क्योंकि कल कभी नहीं आता।”

            “इस तरह से कैसे काम चलेगा?” वह चुप रही। मैंने फिर कहा, “मेरे साथ चलकर रहो।”

            “तुम्हारे साथ और बहुत-से लोग हैं, वे क्या कहेंगे?”

            “वे चाहे जो कहें। मैं तुम्हें इस तरह अकेला नहीं छोड़ सकता।”

            “मैं अकेली नहीं हूँ। मेरे दो हाथ और दिमाग़ मेरे पास हैं, जिनसे जब चाहूँ गुड़ियाँ बना सकती हूँ।”

            “मान लो इन हाथों को या दिमाग़ को कुछ हो गया तो?”

            “अगर मेरे हाथ और दिमाग़ भी भरोसे लायक नहीं, तो तुम पर ही कितना भरोसा कर सकती हूँ।” उसकी बातों से कभी-कभी सख्त उलझन होती है। ज़िन्दगी के मामले में इतना तर्क नहीं चलता। मैं उस दिन बिना कुछ कहे चला आया। सोचा, चार-छह दिन बाद जाऊँगा, तब तक शायद उसका मन बदल जाए।

 

एक हफ़्ते बाद उसके घर गया। सुनकर अवाक् रह गया कि उसने शहर छोड़ दिया है। किसी को कुछ पता न था कि वह कहाँ गई। ग्लानि से मन भर आया। उस बेचारी असहाय लड़की के प्रति और सहानुभूति दिखाई जानी चाहिए थी। हफ़्ते-भर उसे बिलकुल अकेला छोड़कर मैंने शायद अपने जीवन की सबसे बड़ी निर्दयता दिखाई थी।

 

 

उस दिन अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ मोटर से घर लौट रहा था। रास्ते में मेला लगा हुआ था। बचा-बचाकर मोटर निकाल रहा था, कि एकाएक गुड़ियों की एक दुकान देखकर ठिठक गया। उनकी आकृति कुछ परिचित लगी। सहसा बीस वर्ष पहले की घटनाएँ दिमाग़ में घूम गईं। लड़की चहक उठी, “हाय कैसी प्यारी गुड़ियाँ…लेंगे…पापा रोकिए।”

            एक लड़का गुड़ियाँ बेच रहा था। उसका भाई?

            “ये गुड़ियाँ तुमने बनाई हैं?”

            “जी नहीं, मेरी माँ ने।”

            कुछ सोचकर फ़िर पूछा, “क्या ये सरकस कर सकती हैं?”

            उसने मुझे ऐसे देखा मानो किसी सिरफिरे को देख रहा हो। मैंने अपने सवाल की बेवकूफ़ी महसूस की। गुड़ियों को ध्यान से देखता रहा। वे काफ़ी बदल चुकी थीं, पर अत्यन्त सुन्दर थीं आज भी, और उसी कलाकार की याद दिलाती थीं, जिसकी गुड़ियाँ कभी सरकस करती थीं। पर अब उनके चेहरे पर वह चंचलता न थी। लगता था किसी बेवकूफ़ उदासी से अपने को घेरे हुए किसी बेमतलब बात को एकदम शुरू से सोच रही हैं…।

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